गाजियाबाद के वरिष्ठ पत्रकार स्वर्गीय श्याम सुंदर वैद्य " तड़क वैद्य" (1911-1984)

( सुशील कुमार शर्मा, स्वतन्त्र पत्रकार)

     गाजियाबाद। जब  गाजियाबाद की पुरानी आबादी शहर के प्राचीन चार गेटों तक ही सीमित थी और गाजियाबाद, मेरठ जिले की तहसील था ,उस समय मेरे ( सुशील कुमार शर्मा) पिता श्याम सुंदर वैद्य, "तड़क वैद्य" के नाम से प्रसिद्ध थे। मैं बचपन की स्मृतियां कभी नहीं भूल सकता। जो मेरे लिए शहर के सम्मानित अथवा बुजुर्ग अपरिचित होते थे , उन्हें यह बताने पर कि मैं "तड़क वैद्य जी" का बेटा हूं,मुझ पर स्नेह लुटाने लगते थे। बहुत से बताते थे कि हम उनसे पढ़ें हैं। मेरे पिता ने आजादी की लड़ाई में आंदोलनकारियों के साथ जेल में और बाहर भी अनेक बार भूख हड़ताल की। लेकिन स्वतंत्रता सेनानी पैंशन नहीं ली। उन्हें नफरत थी पैंशन ले रहे लोगों में शामिल अंग्रेजों के खबरची रहे कथित स्वतंत्रता सेनानियों से। उस समय हमारे बुजुर्ग अपनी मातृभाषा हिंदी के साथ- साथ उर्दू और अंग्रेजी के भी ज्ञाता होते थे। मेरे पिता भी तीनों भाषाओं के ज्ञाता थे। परिवार के बुजुर्ग बताते थे कभी ऐसा भी समय था जब स्टेशन पर किसी पुराने रिक्शे वाले को मात्र यह बताना होता था कि दिल्ली गेट तड़क वैद्य जी के यहां जाना है और वह  हमारे छत्ते मौहल्ले वाले घर पहुंचा देता था। मेरे पिता ने जीवनभर बडा संघर्ष किया था। 

    गाजियाबाद मेरी मां का पैतृक निवास था। पिता कुचेसर के पास नली बरखंडा गांव से थे। बाबा पाली राम  पटवारी रहे थे। पिता वैद्य थे दवायें खुद बनाते थे और फिर  दवाओं को प्रवास- पेटी में रख कर पैदल गांव -दर- गांव निकल जाते थे। कई- कई दिनों में घर आते थे। घर पर गाय रहती थी।मरवा के कुछ पौधे थे जिनके पत्ते तोड कर मां चटनी बना देती थी। चटनी से रोटी खाकर और दूध पीकर ही हम बड़े हुए हैं। पिता  कांग्रेस के बाद नेताजी सुभाषचंद्र बोस की फार्वर्ड ब्लाक की गाजियाबाद इकाई के अध्यक्ष भी रहे। बंटवारे के बाद रिफ्यूजीयों के लिए सक्रिय रहे। वह  सोशलिस्ट पार्टी में भी रहे और फिर जीवन पर्यन्त कम्युनिस्ट पार्टी में रहे। वह वामपंथी "गाजियाबाद आयरन एंड स्टील वर्कर्स एसोसिएशन" के जनरल सेक्रेटरी भी रहे। मेरा जन्म 1951 में हुआ था  । उनका उससे पहले का मजदूरों के साथ टाउन हॉल का एक चित्र था जिसमें मैं उनके पास बैठे सरदार महेंद्र सिंह पहलवान को ही पहचानता था। पिता जी के मित्र बताते थे कि एक बार वह  बहुत गम्भीर बीमार हो गए थे। उनके मित्र एडवोकेट चौ.शिव राज सिंह जी ने उन्हें तब वैद्यक के लिए इतनी मेहनत न करने और अपना अखबार निकालने की सलाह दी। 

   वर्ष 1961-62 में मेरे पिता ने साप्ताहिक अखबार युग करवट की शुरुआत की।उस समय दैनिक अखबारों के दो ही एडिशन होते थे। लोकल खबरें बहुत छोटी छप पाती थी। दैनिक अखबारों के संवाददाताओं  को अपनी पूरी खबर के लिए अपना साप्ताहिक अखबार निकालना पड़ता था। जब हमारा अखबार शुरू हुआ और नियमित निकलने लगा तो दैनिक अखबारों के संवाददाताओं की पूरी खबर हमारे अखबार में ही छपती थी। गाजियाबाद के पहले पत्रकार चन्द्र भान गर्ग भी हमारे अखबार में नियमित कालम लिखते थे । मेरे पिताजी    20 रूपये के वार्षिक सदस्य बनाने के लिए वैद्यक  के समय की तरह पैदल ही गांव- दर -गांव जाते थे और कई-कई दिनों में वापस आते थे। तब गाजियाबाद में  गिनी- चुनी प्रेस थी जो लोगों ने अपने घरों में ही लगा रखीं थीं और खुद ही कम्पोजिंग करते थे।। कागज की कोई दुकान नहीं थी। किसी चित्र को छापने के लिए ब्लॉक बनवाना पड़ता था। पहले दिल्ली नई  सड़क बनने देने जाते थे फिर लेने। आने-जाने के साधन सीमित थे।उस समय गिनी-चुनी रेल और बस थी जिनकी छत भी भरी रहती थी। पिता जी मुझे भी अपने साथ ले जाते थे। कागज और ब्लाक तो कैश ही लाना पड़ता था लेकिन छपाई देने में हमेशा कर्जदार रहे। हमारे समाचार पत्र का गांवों में बहुत प्रसार था। जब अखबार पोस्ट करना होता था तो रात-रात भर बैठ कर हम पते लिखते थे। वर्षों तक मुझे गांवों के सैकड़ों पते उनके पोस्ट आफिस सहित याद थे। मुझे याद है जब वह मोदी नगर सेठ गूजर मल मोदी से मिलने जाते थे तो एक दिन दुहाई, दूसरे दिन मुरादनगर और तीसरे दिन मोदी नगर पहुंचते थे।गूजर मल मोदी सुबह अपने सचिव के साथ  मोदी भवन से रेल लाइन के सहारे घूमने जाते थे यही समय उनसे मुलाकात का होता था। पिताजी भी उसी समय मिलते थे।वह बताते थे गूजर मल मोदी उनसे कह देते थे वैद्य जी लाइन खींच लेना (मतलब विज्ञापन छाप देना)। जब 1973 में मैंने पूर्णकालिक पत्रकारिकता शुरू की तो पिताजी ने मुझे उन सबसे मिलवा दिया था जिनसे गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस, गांधी जयंती और होली व दीपावली पर्व पर विज्ञापन लेने जाते थे। मुझे उनके परिचित सभी उद्यमियों से बड़ा स्नेह और सम्मान मिला था। उस समय दो नये पैसे के डाक टिकट से पूरे देश में अखबार पहुंचता था।  मुझे उनके द्वारा मिलाये सभी  उद्यमियों ने हमेशा प्राथमिकता दी। प्रेस मैंने उनके स्वर्गवास के बाद ही लगाई थी। न पिता ने पीत पत्रकारिता की और न मैंने।भांड और बिकाऊ पत्रकारिता बढ रही थी।इसलिए जब  बड़े अखबारों के ब्यूरो खुलने लगे और उन अखबारों में स्थानीय खबरों के परिशिष्ट निकलने लगे ( अब तो बड़े अखबारों के हर शहरों के संस्करण ही अलग निकल रहे हैं)  तो मैंने और मेरी पत्नी अर्चना शर्मा ने अपने दोनों अखबार ( दूसरा अखबार मेरी पत्नी ने सा. राष्ट्रीय निधि 15 वर्ष तक अनवरत निकाला था) और प्रेस  बंद कर दिए। हमारे जमाने में दिनभर जो देखा और सुना वह रात को अखबार में छापने के लिए खबर बनाते थे।  गलत काम करने वाले के विरुद्ध छापने की कभी परवाह नहीं की चाहे वह शुभचिंतक क्यों न हो। कभी किसी को  अपने स्वार्थ के लिए समाजसेवी नहीं लिखा। क्योंकि ऐसे लोगों की पीठ पीछे की सच्चाई मालूम होती थी। 

पिताजी दिवंगत यशस्वी प्रधानमंत्री "जय जवान जय किसान" नारे के प्रणेता लाल बहादुर शास्त्री जी के साथ स्वतंत्रता आंदोलन में कहीं जेल में साथ रहे थे। शास्त्री जी उन्हें बड़ा स्नेह करते थे और सम्मान करते थे। वह बताते थे एक बार जवाहरलाल नेहरू जी के समय शास्त्री जी को पार्टी टिकट की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। गाजियाबाद के पहले विधायक रहे सरदार तेजा सिंह को लेकर वह उनके पास गए थे तब उनका टिकट कटने की अफवाह थी,  दूर से ही उन्हें देखकर शास्त्री जी ने अपने पास बुलाया और कहा कैसे आये है। पिताजी ने बताया तो बोले तुमने तो कांग्रेस छोड़ दी है। पिताजी ने कहा मैं सरदार तेजा सिंह के लिए आया हूं। तब टिकट तेजा सिंह को ही मिला था। दोनों को नमन है।