'महफ़िल ए बारादरी' है अदीबों का आशियाना - दीक्षित दनकौरी

  गाजियाबाद। देश के मशहूर शायर दीक्षित दनकौरी ने 'महफिल ए बारादरी' को खुलूस और मोहब्बत का आशियाना बताया। उन्होंने कहा कि वह देश विदेश के तमाम मंचों से अपना कलाम पेश कर चुके हैं, लेकिन महफिल ए बारादरी असल में अदीबों का ठिकाना है। अपने हर शेर पर दाद बटोरते हुए श्री दनकौरी ने अपनी बात यूं शुरू की "खुलूस ओ मोहब्बत की  खुशबू से तर है, चले आइए ये अदीबों का घर है।" मुख्य अतिथि सुप्रसिद्ध शायर आलोक यादव ने भी अपने अशआरों पर जमकर दाद बटोरते हुए कहा "जिस दिन से तुम चले गए रिश्ते समेट कर, उस दिन से गांव में कोई मेला नहीं लगा।"

  नेहरू नगर स्थित सिल्वर लाइन प्रेस्टीज स्कूल में आयोजित महफिल ए बारादरी को संबोधित करते हुए दीक्षित दनकौरी ने गजल को पुकारते हुए कहा कि "ए ग़ज़ल पास आ गुनगुना लुं तुझे, तू संँवारे मुझे मैं संँवारू तुझे।" उन्होंने अपने अशआर "जख्म ए दिल की चुभन खो गई, बात आई-गई हो गई। मैंने सूरज से की दोस्ती, आंख की रोशनी खो गई।" "आप क्यों हैं खफा कुछ पता तो चले, मेरी क्या है खता कुछ पता तो चले, मैं तो राजी हूं तेरी रजा में मगर, मेरी क्या है सजा कुछ पता तो चले।" "कुछ लम्हे ऐसे भी आए, हमने कसदन धोखे खाए। रिश्ता कितना ही गहरा हो, खलता है गर रास न आए" पर भी जम कर दाद बटोरी। आलोक यादव के शेर "जब तक सफर में मेरे हमकदम थे तुम, यह इश्क मुझे आग का दरिया नहीं लगा। कुछ शेर सारी उम्र मुकम्मल नहीं हुए, सानी के जैसा मिसरा ए उला नहीं लगा। मेरी नजर पड़ी रिवर व्यू मिरर पर जब, जितना तू दूर था उतना नहीं लगा। दामन पर जो लहू है मेरी ख्वाहिशों का है, किरदार पर मेरे कभी धब्बा नहीं लगा" भी खूब सराहे गए। बारादरी की संस्थापिका डॉ.‌माला कपूर 'गौहर' की गजल के शेर "जब ख़रीदार देर से आए, हम भी बाज़ार देर से आए। आज ख़बरों में तुम ही थीं 'गौहर', आज अख़बार देर से आए।" "इश्क़ का कोई चारा थोड़ी है, फ़ायदा है ख़सारा थोड़ी है।उसने ख़ुद हार मान ली अपनी, वर्ना हमसे वो हारा थोड़ी है। ख़ाक में ढूंढ लो उसे जाकर, वो है 'गौहर’ सितारा थोड़ी है" भी खूब सराहे गए।

  कार्यक्रम का शुभारंभ गार्गी कौशिक की सरस्वती वंदना से हुआ। अपनी ग़ज़ल में गार्गी ने कहा 'इसी मिट्टी की खुशबू है लहू में, मैं इसके काम आना चाहती हूं।' रीता 'अदा' ने अपनी पंक्तियों पर भरपूर दाद बटोरते हुए फ़रमाया 'शाम को सांवले मंज़र में बदल जाते हैं, ज़िंदगी हुक्म है तेरा तो पिघल जाते हैं, इक ज़रूरत है जो घर में नहीं रहने देती, हम भी सूरज की तरह रोज़ निकल जाते हैं। सुरेन्द्र सिंघल ने कहा "आओ मिलकर कोई हल निकाल लेते हैं, दरक रहा है यह रिश्ता संभाल लेते हैं। मोहब्बतों के लिए तंग हो गए हैं दिल, तो मोहब्बतों को किताबों में डाल लेते हैं।" संस्था के अध्यक्ष गोविंद गुलशन ने भी अपने शेरों पर दाद बटोरते हुए कहा "जब उसकी हां ना हुई तो नहीं से बात चली, जहां पर छोड़ चुके थे वहीं से बात चली। मिजाज गर्मी ए एहसास से गुजरता रहा, वह सर्द रात थी जब महजबीं से बात चली।" 

  कोरोनाकाल में भोगे गए एकाकीपन को रेखांकित करते हुए इंद्रजीत सुकुमार ने कहा "साथ रहा हूं खुद के कितनी सदियों से, लेकिन खुद से पहली बार मिला हूं मैं, कह न पाया पीर कभी अन्तर्मन की, खुद से कह कर पहली बार खुला हूं मैं।" वहीं प्रमोद कुमार कुश 'तन्हा', संजय जैन और राजीव सिंघल ने शेरों के माध्यम से संबंधों की पड़ताल नए सिरे से करने की कोशिश की। राजीव कुमार सिंघल ने फरमाया "वो मुझसे जाने क्या-क्या चाहता है, मुझे फिर आजमाना चाहता है। मेरी आवारगी की जिंदगी में वो फिर से आना-जाना चाहता है।" श्री तन्हा ने कहा "तुम्हारे साथ चलना चाहता हूं,

अंधेरों से निकलना चाहता हूं। ये पागलपन नहीं तो और क्या है,

ज़माने को बदलना चाहता हूं।

भुला कर दर्द के क़िस्से अभी मैं

खिलौनों पे मचलना चाहता हूं।" संजय जैन ने कहा "कभी मैं नाव कागज़ की न बारिश में चला पाया, कभी भी रहनुमा कोई न अब तक मैं बना पाया, लगी थी दौड़ दुनिया में बहुत पैसा कमाने की, मुझे थे शौक रिश्तों का फ़क़त रिश्ते कमा पाया।'' उर्वशी अग्रवाल 'उर्वी' ने भी छूट गए रिश्तों की तपिश को टटोलते हुए कहा "कमरे के कोने में रखी खाली कुर्सी बाबू की, बिन बोले सब बातें करती खाली कुर्सी बाबू की।" रिश्तों की गिरह खोलते हुए डॉ. रमा सिंह ने फरमाया "कहां गए हो हमें छोड़कर कुछ तो बोलो बाबूजी, गुस्सा छोड़ो दिल ना तोड़ो, मुंह तो खोलो बाबूजी। सागर सूखे,नदियां सूखीं, सूखे ताल तल्लैया भी, अपने आंसू से अब अपने मुंह को धो लो बाबूजी।

  सुरेन्द्र शर्मा ने अपनी ग़ज़ल में आधुनिकता की आड़ में जहां बदल रही जीवनशैली और खंडित होती मर्यादा व संस्कृति को रेखांकित किया वहीं पत्रकार व कवि सुभाष अखिल ने अपनी कविता 'सुनों मेरी चिरैया' के माध्यम से पितृसत्ता पर चोट करते हुए बेटियों से जीवन के झंझावातों से लड़ कर विजय हासिल करने का आह्वान किया। मंजु 'मन' ने अपनी पंक्ति 'मोम की आंखें रखने वाले तू भी अब, सूरज का दीदार करेगा, तौबा कर' पर वाहवाही बटोरी। नेहा वैद के गीत की पंक्ति 'तैरना है तो किनारे छोड़ने होंगे, धार में कुछ और धारे जोड़ने होंगे' पर पूरे सदन ने खड़े होकर दाद दी। डॉ. तारा गुप्ता के शेर 'जो टूट गए रिश्ते जोड़े भी नही जाते, कुछ लोग हैं ऐसे भी छोड़े भी नही जाते, वो राह चुनी हमने घनघोर अंधेरा था, जिस राह पे सूरज के घोड़े भी नहीं जाते' भी खूब सराहे गए। अनिमेष शर्मा ने अपने शेरों 'गुदगुदाती थी बदन तब इल्म ये हमको न था, एक  दिन बादे-सबा तूफ़ान भी हो जाएगी। छोड़ कर अपनी अना को सर झुकाना सीख लो, तो ये मुश्किल ज़िन्दगी आसान भी हो जाएगी' ज़िन्दगी की हकीकत बयान की। सोनम यादव ने छोटी बहर की ग़ज़ल की पंक्ति 'अब दुधारी हुईं हैं तलवारें, लग रही धार अब म्यानो में' पर जम कर दाद बटोरी। नवदीप सम्मान से सम्मानित पीयूष मालवीय ने नारी शक्ति का आह्वान करते हुए कहा "आप जिस धरती पर जीवन ना दे सके, देखिए उन्होंने आसमान को उठा लिया, नारी को ना समझो बेचारी, जिसने दुनिया को बाजू में उठा लिया।' कार्यक्रम का संचालन तरुण मिश्रा ने किया। उनका कहा "वक्त ने कैसी चली चाल बताया ना करो, किस तरह दिल हुआ पामाल बताया ना करो" भी खूब सराहा गया। सुभाष चंदर,  विपिन जैन, आशीष मित्तल, डॉ. श्वेता त्यागी, गायत्री, सीमा सागर शर्मा, दुर्गेश तिवारी आदि की रचनाएं भी खूब सराही गईं। इस अवसर पर राकेश कुमार मिश्रा, सुशील शर्मा, आलोक यात्री, विकास चंद्र, वागीश शर्मा, अक्षयवरनाथ श्रीवास्तव, नितेश ठाकुर, साजिद खान, सौरभ कुमार, अखिलेश प्रताप सिंह, राजेश कुमार, ओंकार सिंह, टेकचंद, तूलिका सेठ, राकेश सेठ, मोइन अख्तर, डॉ. वीना मित्तल सहित बड़ी संख्या में श्रोता मौजूद थे।